लगती बातें सबकी अच्छी शायद ही मन रूठा
क्या-क्या मैं सपना कह दूँ,क्या-क्या कह दूँ झूठा
मिलें यहाँ सब मोल भाव में
एक से पंछी अलग डाल में
किसका ढंग बेढंगा कह दूँ
रंग बिरंगा सब पहने हैं
किसको भैया नंगा कह दूँ
यहाँ कई किरदार में बैठे चाहे दिन या रात
अज़ि तुम करते हो किसकी बात ?
किसमें किसकी पहचान छिपी
कुछ की लज्जा सरेआम बिकी
जो ईमानों के घेरे में
उनकी नीति बेईमान दिखी
जो जीता है मस्त ज़िंदगी फिर भी कोई शिकायत है
अंदर दरिया सूख गया पर ऊपर ख़ूब तरावट है
ऐसा जब कुछ देखा तुमने, क्या ना होता मन पर आघात ?
अज़ि तुम करते हो किसकी बात ?
अनमोल जो थे हैं आज मूल्य में
सपने बिकते हैं शून्य में
जो तोला वो बोल ना पाया
जो बोला वो तोल ना पाया
कुछ ने नापा बचन किसी का
नज़र किसी की नयन किसी का
आँख वहीं पर चोरी काज़ल,कोई भींचता रह गया दाँत
अज़ि तुम करते हो किसकी बात ?
बहुत सुंदर और सच को बयां करती आपकी कविता
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धन्यवाद आपको और ख़ुश हूँ की शब्द अच्छे लगे
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स्वागत है आशीष जी
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