एक राह मुड़कर, वहीं आई है आख़िर
जहाँ से चला था, कभी वो मुसाफ़िर
कुछ था बदला, कुछ बदला नहीं जी
कुछ तो खुला था, कुछ परदा वही जी
देखा एक गाँव
कुछ बचपन के पाँव
मटकती-सी यादें
बिछड़ों से बातें
बड़ी मस्त बेला
वो अपनों का मेला
जो अंदर था उनके, वही था जी बाहिर
यहाँ से चला था, कभी वो मुसाफ़िर
मिला एक पेड़
थी छाँव की ढेड़
उस मंज़र ने पूछा
क्यूँ लगी इतनी देर
कुछ क़दम जो बढ़ाए
वही मीत आए
थी बिगड़ती कुछ सरगम
पर वही गीत गाए
कुछ मुखौटे नए थे, कुछ था पुराना
नदी बह रही थी, नया था किनारा
सूना तालाब सूनी रवानी
दूना बहाब सुरमें में पानी
उस पानी को भरकर, पलक में मैं लाया
काला था चश्मे, चश्मे में छिपाया
कुछ तो था बदला, ये था जी ज़ाहिर
फिर वो चला, चला वो मुसाफ़िर
Thanks Ashish
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