देख सुबह से शाम हो गई
भागती ज़िंदगी आम हो गई
कुछ दूर चला फ़िर रुक गया
आराम कर लूँ थोड़ा थक गया
सुस्त क़दम और चलने से क्या
सूने आसमान में उड़ने से क्या
दो पल ही सही बात तो कर लूँ
ख़ाली पलकों में जज़्बात तो भर लूँ
इस रात के हर किनारे गीले मिले
तन्हाई तले हर तारे सीले मिले
बैठा सीने में दबी गठरी खोलने
पहली साँस दूसरे से लगी बोलने
कब से दबाए हो चलो बहाल करो
सुबह फ़िर चलना है क्यूँ मलाल करो
फ़िर चाँदनी टहनी से दूर होने लगी
और सुबह की किरणें मगरूर होने लगी
नारंगी छटा आसमान फैलाने लगा
खुली गठरी को सरेआम दिखाने लगा
मैंने झटपट पोटली बांधी और सीने में कसी
फ़िर नए बहानों से नई सुबह सजी
प्रश्न कई थे मन की आलमारी में
उत्तर क़ैद था समय की चारदीवारी में
विचारों से कबतक करूँगा रेड़ा
जाने कब वो छोड़ेंगे मुझको अकेला
…जाने कब वो छोड़ेंगे मुझको अकेला
beautiful piece
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Dhanyavaadam 😀
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Happy rakshabandhan Ashish.
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Aapko bhi Rachna ji
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Thank you Ashish.
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बेहतरीन
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Dhanyavaad dost
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😊
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nice lines, ashish ji
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धन्यवाद दोस्त
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बहुत ही बढिया कविता लिखी है जी।
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धन्यवाद आपको
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धन्यवाद आपको
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मैंने झटपट पोटली बांधी और सीने में कसी
फ़िर नए बहानों से नई सुबह सजी
प्रश्न कई थे मन की आलमारी में
उत्तर क़ैद था समय की चारदीवारी में
kya baat hai..
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धन्यवाद आपको
मुझे भी ये पंक्तियाँ अच्छी लगती हैं
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